मौत से ठन गयी और ओ हार गए।

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मौत को अपने शब्दों के तरकस से मात देने वाले अटल जी आज खुद  उसी मौत से हार गए।उनके महान व्यक्तित्व पर कुछ लिखने से पहले उनकी कविता के ओ अंश याद आते है जो उन्होंने “मौत से ठन गयी”अपनी कालजयी कविता संग्रह में लिखे हैं-रास्ता रोककर वह खड़ी हो गयी।यों लगा जिंदगी से बड़ी हो गयी।मौत की  उम्र क्या दो पल भी नहीँ।।आज देश ने सिर्फ एक पूर्व प्रधानमंत्री ही नहीं खोया है  वरन स्वामी विवेकानंद के बाद एक प्रखर विद्वान भी खोया  है।इस रिक्ति को भरना  बीजेपी के लिए  बहुत मुश्किल होगा ही साथ ही देश की राजनीति में भी अटल जी की कमी हमेसा खलती रहेगी।ओ सिर्फ राजनीति  ही नही अपितु, साहित्य जगत,पत्रकारिता,और मित्रता की दुनिया में बहुत बड़ा रिक्त स्थान  छोड़ गए है  जिसको  भरना सायद संभव ना हो।ओ उस दौर में देश के प्रधानमंत्री बने जब राजनीति में पार्टियों को पूर्ण बहुमत मिलना बंद हो गया था 24 दलों की गठबंधन सरकार बनाकर उन्होंने अपने सर्वमान्य नेता होने का परिचय दिया।अटल जी ओ शख्सियत थे आरएसएस के स्वय सेवक होते हुए भी उन पर आरएसएस के कट्टर हिन्दूपन का ओ प्रभाव नहीं झलकता था जो आज के दौर के बीजेपी के नेताओं में साफ झलकता है।या यों कहा जाए कि ओ जितनी अपनी कविता,देश की राजनीति,और पत्रकारिता में विलीन थे आरएसएस के हिंदुत्व एजंडे में उतने विलीन होते कम ही नजर आए।ओ भारत के पहले विदेश मंत्री थे जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण दिया विवेकानन्द के बाद विदेश में हिंदी में भाषण देने वाले दूसरे भारतीय महापुरुष बने।अटल जी 1968 से 1973 तक जनसंघ के अध्यक्ष रहे।जन संघसे अलग होकर जब 6 अप्रैल 1980 को भारतीय जनता पार्टी बनी तो ओ इसके प्रथम अध्यक्ष बने।लंबे राजनीतिक सफर में अटल जी 1955 में प्रथम चुनाव हारे उसके उपरांत 1957 में बलराम पुर यूपी से ओ प्रथम बार जनसंघ के प्रत्याशी के रूप में चुनाव जीतकर संसद पहुचे।बीजेपी को बने मात्र 16 साल ही हुए थे कि अटल जी प्रधान मंत्री बन गए भले हो ये मात्र 13 दिन का सफर था मगर ये संकेत स्पष्ट मिल गए कि आने वाले समय में बीजेपी को अटल जी शिखर तक पहुंचा कर ही रहंगे और ये जल्दी ही संभव हो गया जब आजादी के बाद कोई  गैर कांग्रेसी  सरकार अपना 5 साल का कार्यकाल पूर्ण कर सकी ये सौभाग्य भी विपक्ष को अटल जी के कुशल नेतृत्व में ही प्राप्त हुआ  ।19 मार्च 1998 से 22 मई 2004 तक अटल जी देश के प्रधान मंत्री बने।देश को परमाणु शक्ति संपन्न बनाने की दिशा में उन्होंने 11 मई और 13 मई 1998 को पोखरण में पाँच परमाणु परीक्षण कर विश्व पटल पर भारत को ताकतवर सिद्ध किया।उनका कहना था कि हम  दोस्त बदल सकते है,मगर पड़ोसी नहीं इसी बन्धुत्व की  भावना को लेकर 19 फरवरी 1999 को सदा-ए-सरहद नाम से दिल्ली से लाहौर तक बस सेवा शुरू की और खुद पहले यात्री बनकर लौहार गए।देस  के चार महानगरो को जोड़ने के लिए स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना आरंभ की ।ये माना जाता है कि1 सड़क निर्माण में उन्होंने शेर शाह सूरी को भी पीछे छोड़ दिया।अटल जी चौहमुखी प्रतिभा के धनी थे इसी कारण इतिहास संयोग भी ऐसा बना की 4 का अंक उनके जीवन की यात्रा में एक -एक मिल के पत्थर की तरह जुड़ता गया।जन्म से लेकर मृत्यु तक चार का अंक इस प्रकार से उनके जीवन से जुड़ा है एक झलक-जन्म 1924 का अंतिम अंक 4 और अंतिम जीवन की अंतिम यात्रा भी 94 वर्ष में अंतिम अंक भी 4 इसके अतिरिक्त 4 का अंक उनके राजनीतिक जीवन और सम्मान के साथ जुड़ा है 1994 में श्रेष्ठ  सांसद का पुरस्कार,1994 में ही पण्डित गोविंद वल्लभ पन्त पुरस्कार,1994 में ही लोकमान्य तिलक पुरस्कार,1994 में ही उनका काव्य संग्रह प्रकाशित,तथा देश का सबसे बड़ा सम्मान भारत रत्न भी 4 के अंक 2014 में मिला,साथ ही 2014 में ही मध्य प्रदेश भोज विश्व विद्यालय द्वारा डीलिट की उपाधि मिली।

आज जब देश में अशांति,राजनीति के सबसे कठिन दौर में है,राज नेता भाषा की मर्यादा से दूर होते जा रहे हैं,देश की हालत को देखकर सुप्रीम कोर्ट भी नाराजगी दिखा चुका है,हिंदुत्व के नाम पर भीड़ खुले आम हिंसक होती जा रही है।ऐसे में अटल जी के विचारधार की शक्त जरूरत महसूस होने लगी है।भारत को लेकर अटल जी कहते थे-”ऐसा भारत जो भूख, भय,निरक्षरता,अभाव से मुक्त हो तथा समाज भाईचारा युक्त हो ऐसी कोशिस हमको करनी होगी”।अटल जी का जाना आजादी के बाद एक और गांधी युग का अंत हो गया है।ओ सच में राजनीति के अजातशत्रु थे।विपक्ष रहकर आपातकाल में जेल में रहकर भी उन्होंने कभी भी इंदिरा गांधी पर राजनीतिक कड़वाहट  प्रकट नही की वरन सहयोग की भावना से काम किया।वे पण्डित नेहरू जी के काफी प्रभावित थे जैसा कि अटल जी ने खुद कहा था -”मेरे जीवन में नेहरू जी की बहुत छाप है”मगर आज वही पार्ट जब अटल जी सक्रिय राजनीति में नहीं रहे और आज हमारे बीच से  हमेशा के लिए बिदा हो गए नेहरू जी को कटघरे में खड़ा करती नजर आ रही  है।राजनीतिक कड़वाहट और दूर होती दोस्ती को देखते हुए बाजपेई जी की प्रासंगिगता और बढ़ जाती है।वो आजादी के बाद सर्वमान्य नेता रहे है जिनका कोई राजनीतिक शत्रु नही था।अटल जी के निधन से लगता है एक बंधुत्व और भाईचारे का युग खत्म हो गया है

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