भारत के संविधान से ऊपर हिन्दू राष्ट्र किसके लिए?

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जब से देश में हिंदूवादी कट्टरपंथी भारतीय जनता पार्टी की सरकार आयी है,भारत के संविधान से ऊपर हिन्दू राष्ट्र बनाने की कोशिशें चल रही हैं.और इस ओर कुछ संकेत भी मिलने लगे हैं.भारत का संविधान धर्मनिरपेक्ष होने की बात और अडिग है,और हिंदूवादी संविधान से परे हिन्दू राष्ट्र बनाने पर अड़े हैं.क्या हिन्दू राष्ट्र के बिना भारत आगे नहीं बढ़ सकता है?

      लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने राष्ट्रीय आंदोलन के समय कहा था “स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है”इसको हम ले के रहंगे।तब हिंदुस्तान की तकदीर अंग्रेजों के हाथ मे थी।अंग्रेज ही भारत के भाग्य विधाता थे।भारतीयों के पास था तो उनका अतीत का खोया हुवा गौरव और,छिन्न भिन्न भारत।एक चीज जो भारतवासियों को एकसूत्र में बांध रही थी ओ थी अंग्रेजो के जुल्म,शोषण और दमनकारी नीति तथा  इससे उपजे राष्ट्रवाद की भावना।अंग्रेजो के विरुद्ध संघर्ष एक कठिन चुनौती थी ही साथ ही भारत आंतरिक चुनौतियों से भी जूझ रहा था।कई कुरीतियां,कुप्रथाएं व्याप्त थी जिससे भारतीय समाज जकड़ा हुवा  था ।जाति प्रथा से भी निपटना बड़ी चुनौती थी.

अंग्रेजी राज्य भले ही भारतीयों के लिए कष्टकारी,दुखदायी रहा हो ,मगर उनके राज में भारत से कई कुप्रथाओं का अंत भी हुआ।लेकिन कुछ समस्याऐं भारत मे गुलामी के दौर से लेकर आज़ादी के 71 साल और भारतीय गणतन्त्र के 69 साल तक भी जस की तस बनी हैं।

भारत के संविधान से ऊपर कैसा हिंदू राष्ट्र?

भारत के संविधान से ऊपर हिन्दू राष्ट्र क्यों.

आज देश का प्रजातन्त्र सिर्फ प्रचारतंत्र तक ही सिमटता नजर आ रहा है।विकसित राष्ट्र,वैज्ञानिक राष्ट्र,शिक्षित राष्ट्र,स्वस्थ राष्ट्र बौद्धिक और संवैधानिक राष्ट्र से ऊपर आजकल भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने की कवायद हो रही है।एक ओर भारत विश्व गुरु बनने का सपना देख रहा है कभी सोने की चिड़िया थी,ज्ञान का गुरु था,विश्व गुरु था और आज हिन्दू राष्ट्र तक ही क्यों सिमटना चाहता है?अगर सनातन धर्म को पुनः स्थापित करना है तो भारत ही क्यों?विश्व को हिन्दू राष्ट्र बनाने की कवायद क्यो नहीं?जिस तरह हिन्दू सनातन से बहुत बाद में पनपे बौद्ध धर्म ने लंका से लेकर चीन तक  अपने बौद्ध धर्म को पहुचाया।अपार समस्याएं से जूझ रहे देश मे धर्म और जाति का अफीम पिलाने का कार्य हो रहा है जो वर्तमान ज्वलन्त समस्याओं पर आँखों मे पट्टी बांध सके।

हिंदू राष्ट्र बनाम स्वराज

आज इस लेख में हिन्दू राष्ट् बनाम स्वराज्य पर कुछ तुलनात्मक विश्लेषण किया गया है जिसमे गांधी जी,डॉ0 आंबेडकर और प0 जवाहर लाल नेहरू जी के विचार संकलित  किये गए गए है साथ ही ये समझने का प्रयास किया गया है कि आखिर क्यों चाहती है आरएसएस  हिन्दू राष्ट्र? क्या संविधान से ऊपर है हिन्दू राष्ट्र क्या बीजेपी इस ओर बढ़ रही है?बेसक गांधी जी टेक्नोलॉजी,यन्त्रों और मशीनिकरण के पक्षधर नहीं थे-वे कुटीर उद्योग और परंपरागत चरखे ,कुटीर उधोग धंधों पर ही कायम रहना चाहते थे।जाति उन्मूलन और दलितों के लिए पृथक निर्वाचन के लिए उन्होंने डॉ0 आंबेडकर के विरुद्ध ही जाने का निर्णय लिया,फिर भी गांधी का स्वराज्य वर्तमान आरएसएस के हिन्दुत्व के एजेंडे से कई मामलों में भिन्न था।

गांधी का स्वराज्य और आरएसएस का हिन्दू राष्ट्र-

गांधी के स्वराज्य का अर्थ है जैसा उन्होंने मेरे सपनों का भारत मे लिखा है”स्वराज का अर्थ है सरकारी नियंत्रण से मुक्त होने के लिए लगातार प्रयत्न करना फिर वह नियंत्रण विदेशी सरकार का हो या स्वदेशी सरकार का।यदि स्वराज्य हो जाने पर लोग अपने जीवन की हर छोटी बात के नियमन के लिए सरकार का मुँह ताकना शुरू कर दें तो वह स्वराज्य -सरकार किसी काम की नहीं होगी”

दूसरी तरफ आरएसएस के हिन्दू राष्ट्र में संविधान की कोमलता और पंथ निरपेक्षता के लिए कोई स्थान नहीं दिखता।आरएसएस के मुख पत्र द ऑर्गनाइजेशन ने 17 जुलाई 1947 को नेशनल फ्लैग के नाम से संपादकीय में लिखा था कि भगवा ध्वज को भारत का राष्ट्रीय ध्वज माना जाए।22 जुलाई 1947 को जब तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज स्वीकार किया गया तो “द ऑर्गनाइजेशन “ने ही इसका विरोध किया था ।इससे कुछ हद तक ये साफ हो जाता है कि अपने शुरुवात के दौर से आरएसएस भारतीय संविधान उसके प्रतीकों को स्वीकार नहीं करता है।जबकि तिरंगे की रक्षा के लिए इस देश के लाखों लोगों ने अपनी कुर्बानिया दी हैं और आज भी दे रहे हैं।

स्वराज का मतलब है संविधानिक राष्ट्र और हिंदुत्व का मतलब है धार्मिक राजतन्त्र जिसकी बागडोर सिर्फ उच्च वर्ग के हाथ में हो और दलित,वंचित,पिछड़े मात्र सेवक बनकर रह जाये जैसा कि वैदिक भारत में था.हिन्दू राष्ट्र में हिन्दू होकर भी दलित अभी भी अछूत है आरएसएस ने सायद ही कभी जाति विनाश का आव्हवान किया हो बेसक राजनीतिक लाभ के लिए दलितों के घर खाना खाने का नाटक किया जाता है वरना सच्चे अर्थों में देखा जाए तो  सन 2025 में आरएसएस के 100 वर्ष पूर्ण हो जायँगे दलित प्रेम होता तो आज सिर्फ दलित खिचड़ी खिलाने तक सीमित नहीं होते.

सवर्णों और अवणों के मकान और दुकान साथ साथ होते ,जाति कमजोर और सामाजिक संबन्ध मजबूत होते.आरक्षण की समीक्षा की बात नहीं होती बल्कि आरक्षण ही खत्म हो जाता.गांधी के स्वराज्य में ऊँचे और नीचे वर्गों का भेद नहीं होगा और जिसमें विविध सम्प्रदायों में पूरा मेल जोल होगा.इसमे स्त्रियोँ को वही अधिकार होंगे जो पुरुषों को होंगे.

भारत के संविधान से ऊपर हिन्दू राष्ट्र में बिल्कुल इसके विपरीत होगा. संविधान में समानता का अधिकार मूल अधिकार है लेकिन हिंदुत्व की जड़े इतनी गहरी हैं कि संविधान को लागू हुए 26 जनवरी 2019 को 69 साल हो जायँगे ,अस्पृश्यता,भेदभाव,जातिपन अभी भी यथावत बरकरार है।धार्मिक संस्थानों पर आज भी दलित और महिलाएं प्रवेश नहीं कर सकती ।सबरीमाला मन्दिर ताजा उदाहरण है ।जबकि गांधी जी मेरे सपनों के भारत मे कहते है-”मेरे-हमारे :सपनों के स्वराज्य में जाति(रेस) या धर्म के भेदों का कोई स्थान नहीं हो सकता”इसी तरह प0 जवाहर लाल नेहरू डिस्कवरी ऑफ इंडिया में लिखते है- “जाँत-पात की व्यवस्था-उसे हम जिस रूप में जानते हैं -दकियानूसी चीज है.

अगर हिन्दू धर्म और हिंदुस्तान को कायम रहना है और तरक्की करना है ,तो इसे जाना ही होगा”।मगर यहाँ तो इंसानो की जाति छोड़ो हनुमान को भी दलितों की बिरादरी में शामिल कर दिया जाता है क्या ये हिन्दूपन के जातिपन को दरसाने के लिए पर्याप्त नहीं है?मेरे सपनों का भारत पृष्ट- 13 में  गांधी  लिखते है-”कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि भारतीय स्वराज्य  तो ज्यादा संख्या वाले समाज का यानी हिंदुओं का ही राज्य होगा,इस मान्यता से बड़ी कोई दूसरी गलती नहीं हो सकती .अगर यह सही सिद्ध हो तो अपने लिए में ऐसा कह सकता हूँ कि मैं उसे स्वराज्य मानने से इनकार कर दुंगा और अपनी सारी शक्ति लगाकर उसका विरोध करूँगा ,मेरे लिए हिन्द स्वराज का अर्थ सब लोगों का राज्य ,न्याय का राज्य है”।गांधी जी के उपरोक्त कथन से सिद्ध हो जाता है कि ओ आरएसएस की विचारधारा और भविष्य में उसके हिन्दुराष्ट्र के इरादों को भांप चुके थे ।

राजनीतिक लाभ के लिए आज देश को धर्म,जाति,मन्दिर,मस्जिद,अकबर,बाबर,जिन्ना,खिलजी,हनुमान,गाय, दलित,मुसलमान,के नाम पर पृथक करने का जोर शोर से अभियान चल रहा है ,गणतन्त्र की आड़ में भीड़तंत्र हिंसक होती जा रही है “राजनीति और चुनाव की रोजमर्रा की बातें ऐसी हैं ,जिनमे हम जरा-जरा से मामलों पर उत्तेजित हो जाते हैं।लेकिन अगर हम हिंदुस्तान के भविष्य की इमारत तैयार करना चाहते हैं ,जो मजबूत और खूबसूरत हो,तो हमें गहरी नींव खोदनी पड़ेगी”

(प0 नेहरू -डिस्कवरी ऑफ इंडिया)

मगर अफसोस आज नीव गहरी खोदी जा रही है तो जातिपन की।अंधविश्वास की,नफरत की,हिन्दू-मुस्लिम की,सवर्ण-अवर्ण की,गरीबी-अमीरी की,ऊँच-नीच की तथा भ्र्ष्टाचार की ।जो स्वराज्य की कल्पना से कहीं दूर है।

क्या नया संविधान बनाने की तैयारी में है आरएसएस।

बार-बार अपने भाषणों में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत कहते है सन 2025 तक भारत हिन्दू राष्ट्र बन जायेगा।कुछ इसी तर्ज पर नरेंद्र मोदी भी कहते है सन 2025 तक भारत विश्व गुरु बन जायेगा।क्या हिन्दू राष्ट्र बनना ही जरूरी है विश्व गुरु बनने के लिए?2025 में आरएसएस को 100 वर्ष हो रहे है तब तक वह अपने एजेंडे को देश पर थोपने की कोशिश  कर रही है।

और एक बात ये भी लगती है कि संविधान के निर्माता डॉ0 आंबेडकर ने मनुस्मृति जलाई थी जो हिन्दू धर्म की संहिता मानी जाती है और कहीं न कहीं आरएसएस इसी के इर्द गिर्द चलती है।इसी का बदला लेने के लिए आरएसएस डॉ0 आंबेडकर द्वारा लिखित संविधान को सायद पसन्द न करती हो ।एक बास्त और गांधी और आंबेडकर के बीच तल्ख राजनीतिक कड़वाहट होते हुए भी ,विपरीत ध्रुव होते हुए भी अंबेडकर और गांधी के विचार हिन्दू राष्ट्र और हिंदुत्व समान दिखते हैं.

हिंदू राष्ट्र पर डॉ0 अम्बेडकर के विचार:

हिन्दू राष्ट्र को ख़तरनाक बताते हुए डॉ0 आंबेडकर थॉट्स ऑन पाकिस्तान में लिखते हैं-”यदि हिन्दू राज की स्थापना सच मे हो जाती है तो निसन्देह यह इस देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य होगा.चाहे हिन्दू कुछ भी कहें,हिन्दू धर्म स्वतन्त्रता ,समानता और मैत्री के लिए एक खतरा है ।यह लोकतंत्र के लिए असंगत है।किसी भी कीमत पर हिन्दू राज को स्थापित होने से रोका जाना चाहिए”तब की परिस्थिति और आज की परिस्थिति में बहुत कुछ बदलाव आ चुका है संविधान में भी 124 संशोधन हो चुके हैं और आगे भी होते रहंगे।विचारधारा कोई भी हो देश हित और समाज की उन्नति के लिए हितकर होनी चाहिए।

राजनीति में धर्म का घोल ठीक नहीं।

धर्म और राजनीति अलग अलग संस्थाये हैं .लेकिन भारत के संविधान से ऊपर कोई संस्था नहीं है. जिनका आपसी घोलमेल न तो धर्म के मन्तव्य को पूर्ण करती हैं ,न ही राजनीति की।राजनीति का अपराधीकरण तो लोकतंत्र के लिए खतरा है ही ,साथ ही राजनीति का धर्मीकरण भी धर्मनिर्पेक्ष राज्य की मूल भावना तथा संविधान की प्रस्तावना के अनुकूल नहीं है।समाज मैत्री भी चाहता है सिर्फ मंत्री ही नहीं।

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